इलेक्ट्रानिक मीडिया में आज चटपटी खबरों को परोसने की होड़ लगी है। वीभत्स हत्याकांड,रेप आदी के चित्रों से सनसनी पैदा करने वाले मीडिया में इस बात की जरा भी चिंता नहीं कि इससे युवाओं पे गलत असर पड़ता है,और फ़िर वही युवा इन गलत कामो को करते है,और फ़िर उनपे भी खबर बनती है। फिल्मों के रोमांटिक-कामुक दृश्य या फिल्मी डान की शानोशौकत भरी जिंदगी या हिंसा के बल पर समाज में व्याप्त उसके खौफ से युवा जल्दी आकर्षित होते हैं।वहीं दुसरे किंतु जिसे समाज में ज्यादा पसंद किया जाता हो उसे परोसना मीडिया का दायित्व नहीं है। सच यही है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी के चक्कर में इन बातों की अनदेखी करता है। सड़क दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा से दु:खी परिवार के घरमीडिया का पहुंचना और परिजनों से पूछना कि 'आपको कैसा लग रहा है', मेरे विचार से यह न केवल अपरिपक्वता दर्शाता है, बल्कियह चैनल की संवेदनहीनता को भी दर्शाता है। चैनलों पर समय और बाजार का दबाव है। न्यूज चैनल्स अपनी-अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए सच को दिखाना भुल जाते हैं। आरुषि हत्याकांड में सीबीआई जांच में आरुषि के पिता को क्लीन चिट तो मिल गई है, किंतु महीने भर जिस व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नई-नई कहानियों से तार-तार किया गया उसकी भरपाई कैसे होगी? चैनल वाले सारा दोष भले ही नोएडा पुलिस पर डालने की कोशिश करें, किंतु आरुषि का चरित्र हनन और मां-पिता की बेईजती चैनल की होशियारि के कारण हुआ।
कैमरामैन और रिपोर्टर लाचार हैं तो एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में खबर की गुणवत्ता व समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव-दुष्प्रभाव की परीक्षा करने के लिए चैनलों के पास समय नहीं है। यदि एक चैनल ऐसा करता है, तो उसे अपना टि आर पी याद आने लगता है। समय और बाजार के अनुसार चलना उसकी मजबूरी है, किंतु क्या यह मीडिया के मूल्यों व मानकों पर फ़िट उतरता है? समाज पर खबरों के प्रभाव को लेकर मीडिया को आपस मे मिल कर ठोस विचार करना चाहिए। बाजार की मांग और विज्ञापन के दबाव के बीच सभ्य समाज के हितों की रक्षा के लिए संतुलन बनाना इलेक्ट्रानिक मीडिया की पहली जरुरत है। चैनलों को यह समझना चाहिए कि टीआरपी की अनियंत्रित दौड़ स्वयं उनके लिए भी भस्मासुर साबित हो सकता है। प्रिंट मीडिया में भी कभी-कभी ईस तरह के मामले समने आते है।
'न्यूयार्क टाइम्स' जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र को भी खोजी पत्रकारिता का दुष्परिणाम झेलना पड़ा था। गलत तथ्यों के आधार पर सनसनीखेज समाचारों के प्रकाशन के लिए एक महिला पतरकार सहित समाचार संपादकों व प्रबंध संपादक को नौकरी गवानी पड़ी थी। कुछ समय पहले दिल्ली की एक स्कूल शिक्षिका पर एक चैनल ने छात्राओं के साथ देह व्यापार कराने का आरोप लगाया था।खबर के प्रसारित होते ही स्कूल पर हमला हुआ, उस शिक्षिका के साथ मारपीट की गई। समय पर पुलिस हस्तक्षेप नहीं करती तो शिक्षिका की जान भी जा सकती थी। बाद में पता चला कि उस चैनल के पतरकार ने एक्सकुलिसिव के चक्कर मे ये सब काम किया था। इसके दो कारण थे,पहला कि चैनल नया था उसे पब्लिसीटी चाहिय थी, दुसरा उस काबिल पतरकार को आगे बढना था किसी भी कीमत पर जबकी वो शिक्षिका पाक साफ़ थी। इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर जो सवाल उठा उसका जवाब कौन देगा उसकी भरपाई कैसे हो सकती है या उक्त शिक्षिकाको जिस सामाजिक प्रतिकार को सहना पड़ा, वह क्या क्षतिपूर्ति देने मात्र से खत्म हो सकता है? उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव की चिंता करना मीडिया का कर्तव्य बनता है। कई विश्वविख्यात समाचार पत्रों के साथ काम कर चुके और वर्तमान में मोरकेट विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर फिलिप सेब ने 'गोइंग लाइव' नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, ''पत्रकारिता का अर्थ उपभोक्ताओं तक समाचार-जानकारी पहुचा देना ही नहीं है। समाचार को प्रेषित कर देने मात्र से काम खत्म नहीं होता। अच्छा लेखन, अच्छी तस्वीरें, अच्छी ध्वनि- ये मूल तत्व हैं जो लोगो को सोचने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन और मोनिका लेवेंस्की की कहानी उजागर करने वाले इंटरनेट समाचार पत्र के मालिक मैट ड्रज से काफी समय पहले साप्ताहिक पत्रिका 'न्यूजवीक' के पास यहसनसनीखेजखबर पहुंच चुकी थी, किंतु यह जानते हुए भी कि देर करने से दूसरे मीडिया वाले इस कहानी को दिखा देंगे, न्यूजवीक ने इसकी सत्यताको परखना जरूरी समझा। हमारे चैनलों को भी इससे बहुत कुछ सीखना चाहिए।
कैमरामैन और रिपोर्टर लाचार हैं तो एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में खबर की गुणवत्ता व समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव-दुष्प्रभाव की परीक्षा करने के लिए चैनलों के पास समय नहीं है। यदि एक चैनल ऐसा करता है, तो उसे अपना टि आर पी याद आने लगता है। समय और बाजार के अनुसार चलना उसकी मजबूरी है, किंतु क्या यह मीडिया के मूल्यों व मानकों पर फ़िट उतरता है? समाज पर खबरों के प्रभाव को लेकर मीडिया को आपस मे मिल कर ठोस विचार करना चाहिए। बाजार की मांग और विज्ञापन के दबाव के बीच सभ्य समाज के हितों की रक्षा के लिए संतुलन बनाना इलेक्ट्रानिक मीडिया की पहली जरुरत है। चैनलों को यह समझना चाहिए कि टीआरपी की अनियंत्रित दौड़ स्वयं उनके लिए भी भस्मासुर साबित हो सकता है। प्रिंट मीडिया में भी कभी-कभी ईस तरह के मामले समने आते है।
'न्यूयार्क टाइम्स' जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र को भी खोजी पत्रकारिता का दुष्परिणाम झेलना पड़ा था। गलत तथ्यों के आधार पर सनसनीखेज समाचारों के प्रकाशन के लिए एक महिला पतरकार सहित समाचार संपादकों व प्रबंध संपादक को नौकरी गवानी पड़ी थी। कुछ समय पहले दिल्ली की एक स्कूल शिक्षिका पर एक चैनल ने छात्राओं के साथ देह व्यापार कराने का आरोप लगाया था।खबर के प्रसारित होते ही स्कूल पर हमला हुआ, उस शिक्षिका के साथ मारपीट की गई। समय पर पुलिस हस्तक्षेप नहीं करती तो शिक्षिका की जान भी जा सकती थी। बाद में पता चला कि उस चैनल के पतरकार ने एक्सकुलिसिव के चक्कर मे ये सब काम किया था। इसके दो कारण थे,पहला कि चैनल नया था उसे पब्लिसीटी चाहिय थी, दुसरा उस काबिल पतरकार को आगे बढना था किसी भी कीमत पर जबकी वो शिक्षिका पाक साफ़ थी। इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर जो सवाल उठा उसका जवाब कौन देगा उसकी भरपाई कैसे हो सकती है या उक्त शिक्षिकाको जिस सामाजिक प्रतिकार को सहना पड़ा, वह क्या क्षतिपूर्ति देने मात्र से खत्म हो सकता है? उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव की चिंता करना मीडिया का कर्तव्य बनता है। कई विश्वविख्यात समाचार पत्रों के साथ काम कर चुके और वर्तमान में मोरकेट विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर फिलिप सेब ने 'गोइंग लाइव' नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, ''पत्रकारिता का अर्थ उपभोक्ताओं तक समाचार-जानकारी पहुचा देना ही नहीं है। समाचार को प्रेषित कर देने मात्र से काम खत्म नहीं होता। अच्छा लेखन, अच्छी तस्वीरें, अच्छी ध्वनि- ये मूल तत्व हैं जो लोगो को सोचने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन और मोनिका लेवेंस्की की कहानी उजागर करने वाले इंटरनेट समाचार पत्र के मालिक मैट ड्रज से काफी समय पहले साप्ताहिक पत्रिका 'न्यूजवीक' के पास यहसनसनीखेजखबर पहुंच चुकी थी, किंतु यह जानते हुए भी कि देर करने से दूसरे मीडिया वाले इस कहानी को दिखा देंगे, न्यूजवीक ने इसकी सत्यताको परखना जरूरी समझा। हमारे चैनलों को भी इससे बहुत कुछ सीखना चाहिए।