कहते है काम निकल गया तो पहचानते नही । जब काम था तो आप उनके बाप थें । पिताजी को सम्मान दे या ना दे पर नये बाप को सम्मान देना तो धर्म है। खास कर के अपने धन्धे में । यही तो पत्रकारिता की रीत है । खबर जब सुट हो के आ जाये तो आगे की कारवाई शरू होती है। पर इसके साथ कुछ और हांेता है। ताबातोड तेल मालिस ।
ये मालिस हांेता है अपने स्टोरी को खुबर सुरत लुक देने के लिए। इसका भी असर पड़ता है।जो जितना आगे खबर उसकी उतनी ही खुबसुरत । और हाॅ खुबसुरत लोगो की हो तो और भी खुबसुरत।
एंकर तो हमेशा लल्लो चप्पो करती नजर आयेगी। कोई अच्छा शार्ट ना छोड़ दे इडिटर। क्योकिं उनका तो रेपोटेसन तो विजुअल बाइट पर ही टिका हुआ है। कभी टाॅफी तो कभी पार्टी में या फिर किसी ना किसी बहाने इडिट रूम मे मस्का लगाने जरूर जायेगी। आज के जो महानुभाव एंकर लोग है उन्हें टेक्निकल शब्दावली का मामुली ज्ञान तक नही होता बस काम चल जाता है। उसी ढ़रे पर चल निकलती है। मैनेजमेंट से लेकर इडिटोरियल तक तेल मालिश लगाते चलते है। मैनेजमेंट वालो के साथ तो मटरगस्ती करती तक नजर आ जायेगी। े
कम्पनी छोड़ने के बाद उसे उसके प्रोग्राम का सीडी कौन देगा। थोड़ा मोडिफिकेशन वगैरह करना होगा तो कौन करेगा। चोरी से ये काम तो इडिटर साहब ही करेगें।तो हो गयें खास । और इसके लिए ये कोई कसर छोडते ही नही । बाहर शेर अन्दर मुर्गी । अब क्वालिटी की बात थोड़ी कर लेते है। नये लोग नये अनुभव । सिखना भी होता है। मख्खन लगाना तो
जरूरी है। इनके पास ना तो शार्ट का ज्ञान होता है । ना फिर विषय का ज्ञान ।विषय पर कम पकड़ , पढ़ाई तो करते नही । करते भी तो बहुत कम ही होगें । ना समय मिल पाता होगा
ना जानकारी लेने का जुनुन होता है। खैर इस मामले मे कुछ अपवाद भी है जो पढ़ाई के साथ -साथ मेहनत भी करते है। और वही लोग आगे बढ़ते है। अब तो कुछ ऐसे भी एंकर पैदा
हो गये है जो बिना रिर्सच के ही स्टोरी पर चले जाते है। वहाॅ पर पहुॅच के ही रिर्सच भी पुरा करते है। अब कहने की जरूरत ही नही हैकि उस स्टोरी का क्या होगा। न्युज एंकर भी कुछ ऐसे ही इस धरती पर आ टपके है। जिन्हे जेनरल विषयों पर भी पकड नही है। आये दिन इनके खबरो में आने से आप इन बेजोड़ पत्रकारो से रूबरू हो ही जाते है। अब तो चेहरे मायने रखने लगे है और थोड़ी बहुत आवाज । बाकि अच्छें संस्थान का डिग्री और ढ़ेर सारी पैरबी ।
जब ऐसे लोग आयेगे तो फिडबैक क्या होगा कहने की जरूरत नही। और यही उनकी क्वालिटी उन्हें मजबुर करती है नौकरी बचाने और तेल पानी लगाने को। कभी कभी तो छिछोरेपन पर भी उतर कर अपनी जात तक बतला देते है। एक ऐसी ही खबर ब ाटला हाउस से जुडी हुई हैं जब एक एंकर फिल्ड में गया और दिल्ली पुलिस महानिदंेशक से पुछ बैठा इन आतंकबादियो को एके 47 का लाईसेंस कौन दे देता है। खैर कम्पनी की जो भद्वदी पिटी सो अलग बात है। जब ऐसे लोग आयेगे तो क्या होगा! कहने की जरूरत नही !
कम्पनी में ये कैसे टिके रहते है । ये जग जाहिर ।
पत्रकारिता का स्तर तो गिरेगा ही। पढ़े लिखे लोग सड़को पर आयेगे ही । और चापलुस आगे जायेगे ही । और ऐसे ही पत्रकारिता चाटुकारिता मे तबदिल हो जायेगी । जो सम्मान मिलता था पत्रकारो को उसके बदले गाली तो जरूर मिलेगी।
तरुण ठाकुर
ये मालिस हांेता है अपने स्टोरी को खुबर सुरत लुक देने के लिए। इसका भी असर पड़ता है।जो जितना आगे खबर उसकी उतनी ही खुबसुरत । और हाॅ खुबसुरत लोगो की हो तो और भी खुबसुरत।
एंकर तो हमेशा लल्लो चप्पो करती नजर आयेगी। कोई अच्छा शार्ट ना छोड़ दे इडिटर। क्योकिं उनका तो रेपोटेसन तो विजुअल बाइट पर ही टिका हुआ है। कभी टाॅफी तो कभी पार्टी में या फिर किसी ना किसी बहाने इडिट रूम मे मस्का लगाने जरूर जायेगी। आज के जो महानुभाव एंकर लोग है उन्हें टेक्निकल शब्दावली का मामुली ज्ञान तक नही होता बस काम चल जाता है। उसी ढ़रे पर चल निकलती है। मैनेजमेंट से लेकर इडिटोरियल तक तेल मालिश लगाते चलते है। मैनेजमेंट वालो के साथ तो मटरगस्ती करती तक नजर आ जायेगी। े
कम्पनी छोड़ने के बाद उसे उसके प्रोग्राम का सीडी कौन देगा। थोड़ा मोडिफिकेशन वगैरह करना होगा तो कौन करेगा। चोरी से ये काम तो इडिटर साहब ही करेगें।तो हो गयें खास । और इसके लिए ये कोई कसर छोडते ही नही । बाहर शेर अन्दर मुर्गी । अब क्वालिटी की बात थोड़ी कर लेते है। नये लोग नये अनुभव । सिखना भी होता है। मख्खन लगाना तो
जरूरी है। इनके पास ना तो शार्ट का ज्ञान होता है । ना फिर विषय का ज्ञान ।विषय पर कम पकड़ , पढ़ाई तो करते नही । करते भी तो बहुत कम ही होगें । ना समय मिल पाता होगा
ना जानकारी लेने का जुनुन होता है। खैर इस मामले मे कुछ अपवाद भी है जो पढ़ाई के साथ -साथ मेहनत भी करते है। और वही लोग आगे बढ़ते है। अब तो कुछ ऐसे भी एंकर पैदा
हो गये है जो बिना रिर्सच के ही स्टोरी पर चले जाते है। वहाॅ पर पहुॅच के ही रिर्सच भी पुरा करते है। अब कहने की जरूरत ही नही हैकि उस स्टोरी का क्या होगा। न्युज एंकर भी कुछ ऐसे ही इस धरती पर आ टपके है। जिन्हे जेनरल विषयों पर भी पकड नही है। आये दिन इनके खबरो में आने से आप इन बेजोड़ पत्रकारो से रूबरू हो ही जाते है। अब तो चेहरे मायने रखने लगे है और थोड़ी बहुत आवाज । बाकि अच्छें संस्थान का डिग्री और ढ़ेर सारी पैरबी ।
जब ऐसे लोग आयेगे तो फिडबैक क्या होगा कहने की जरूरत नही। और यही उनकी क्वालिटी उन्हें मजबुर करती है नौकरी बचाने और तेल पानी लगाने को। कभी कभी तो छिछोरेपन पर भी उतर कर अपनी जात तक बतला देते है। एक ऐसी ही खबर ब ाटला हाउस से जुडी हुई हैं जब एक एंकर फिल्ड में गया और दिल्ली पुलिस महानिदंेशक से पुछ बैठा इन आतंकबादियो को एके 47 का लाईसेंस कौन दे देता है। खैर कम्पनी की जो भद्वदी पिटी सो अलग बात है। जब ऐसे लोग आयेगे तो क्या होगा! कहने की जरूरत नही !
कम्पनी में ये कैसे टिके रहते है । ये जग जाहिर ।
पत्रकारिता का स्तर तो गिरेगा ही। पढ़े लिखे लोग सड़को पर आयेगे ही । और चापलुस आगे जायेगे ही । और ऐसे ही पत्रकारिता चाटुकारिता मे तबदिल हो जायेगी । जो सम्मान मिलता था पत्रकारो को उसके बदले गाली तो जरूर मिलेगी।
तरुण ठाकुर